वीर शिरोमणि दुर्गादास जी ||स्वामी धर्म पालन का जो अनूठा आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया वह राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लेख्य है जी उनकी कीर्ति को सदा अक्षण्णु रखेगा।
स्वामी धर्म पालन करने को राजस्थानी काव्य में " लूण उजालणो " भी कहा गया है।
अर्थात अपने स्वामी के खाए नमक को तन्निमित्त अपने त्याग से उज्जवल करना।
राजस्थान के इतिहास में स्वामीभक्ति के एक से बढ़कर एक उदाहरण देखने में आते हैं।
वीर शिरोमणि दुर्गादास जी तो मानो स्वामी भक्ति के मूर्त विग्रह ही थे, जिन्होंने अपने बालक - राजा अजीत सिंह की प्राण रक्षार्थ क्या कुछ नहीं किया तथा उन्हें जोधपुर का गया हुआ राज्य दिलाने के लिए आजीवन अनथक संघर्ष किया।
बादशाह औरंगजेब ने अपनी कुटिल नीति का अवलंबन कर दुर्गादास जी को अपनी ओर मिलाने के लिए उन्हें 1693- 94 में दो बार मनसब देने का प्रस्ताव किया परंतु कोई भी प्रलोभन उन्हें अपने स्वामी स्वामी धर्म से डिगा नहीं सका।
इस आशय में औरंगजेब दुर्गादास के बीच में पारस्परिक संवाद विषयक ये दोहे लोक अति प्रसिद्ध है जो दुर्गादास जी की अनुपम स्वामी भक्ति के ज्ञापक हैं।
औरंगजेब के यह पूछे पूछने पर कि दुर्गादास तुम्हें जो भी सबसे प्रिय हो, बताओ! वही दे दूंगा-
औरंगसाह इस ऊचरे, बाल्हो कहो बिसेस।
निज मुख सूं मांगो जिको, सो आपूं दुरगेस।।
दुर्गादास जी जी ने उत्तर दिया -
धर बाल्ही, बाल्हो धरम, बाल्हो मुरधर देस।
स्यामधरम बाल्हों सदा, नित बाल्हों नरेस।।
अर्थात मुझे अपनी धरती और धर्म प्यारा है, अपना मरुधर देश प्यारा है और स्वामी धर्म तथा राजा तो सदा ही प्यारे हैं। इनसे बढ़कर मुझे और कोई प्यारा नहीं।
यही स्वामी भक्ति का अनुपम आदर्श आगे चलकर यद्यपि राजा अजीत सिंह जी के कृतजघ्नता पूर्ण आचरण के फलस्वरुप दुर्गादास जी को अपना वतन छोड़कर मालवा जाना पड़ा तथा वही उज्जैन में शिप्रा तट पर ही उस वीर की इहलीला का सवंरण हुआ किंतु स्वामी धर्म पालन का जो अनूठा आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया वह राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लेख्य है जी उनकी कीर्ति को सदा अक्षण्णु रखेगा।
अर्थात अपने स्वामी के खाए नमक को तन्निमित्त अपने त्याग से उज्जवल करना।
राजस्थान के इतिहास में स्वामीभक्ति के एक से बढ़कर एक उदाहरण देखने में आते हैं।
वीर शिरोमणि दुर्गादास जी तो मानो स्वामी भक्ति के मूर्त विग्रह ही थे, जिन्होंने अपने बालक - राजा अजीत सिंह की प्राण रक्षार्थ क्या कुछ नहीं किया तथा उन्हें जोधपुर का गया हुआ राज्य दिलाने के लिए आजीवन अनथक संघर्ष किया।
बादशाह औरंगजेब ने अपनी कुटिल नीति का अवलंबन कर दुर्गादास जी को अपनी ओर मिलाने के लिए उन्हें 1693- 94 में दो बार मनसब देने का प्रस्ताव किया परंतु कोई भी प्रलोभन उन्हें अपने स्वामी स्वामी धर्म से डिगा नहीं सका।
इस आशय में औरंगजेब दुर्गादास के बीच में पारस्परिक संवाद विषयक ये दोहे लोक अति प्रसिद्ध है जो दुर्गादास जी की अनुपम स्वामी भक्ति के ज्ञापक हैं।
औरंगजेब के यह पूछे पूछने पर कि दुर्गादास तुम्हें जो भी सबसे प्रिय हो, बताओ! वही दे दूंगा-
औरंगसाह इस ऊचरे, बाल्हो कहो बिसेस।
निज मुख सूं मांगो जिको, सो आपूं दुरगेस।।
दुर्गादास जी जी ने उत्तर दिया -
धर बाल्ही, बाल्हो धरम, बाल्हो मुरधर देस।
स्यामधरम बाल्हों सदा, नित बाल्हों नरेस।।
अर्थात मुझे अपनी धरती और धर्म प्यारा है, अपना मरुधर देश प्यारा है और स्वामी धर्म तथा राजा तो सदा ही प्यारे हैं। इनसे बढ़कर मुझे और कोई प्यारा नहीं।
यही स्वामी भक्ति का अनुपम आदर्श आगे चलकर यद्यपि राजा अजीत सिंह जी के कृतजघ्नता पूर्ण आचरण के फलस्वरुप दुर्गादास जी को अपना वतन छोड़कर मालवा जाना पड़ा तथा वही उज्जैन में शिप्रा तट पर ही उस वीर की इहलीला का सवंरण हुआ किंतु स्वामी धर्म पालन का जो अनूठा आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया वह राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लेख्य है जी उनकी कीर्ति को सदा अक्षण्णु रखेगा।
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